18 ديسمبر، 2024 8:03 م

إلى‌ ‌دواعش‌ ‌الشيعة‌ ‌..‌ ‌عقيدتكم‌ ‌فوق‌ ‌رمال‌ ‌متحركة‌ ‌-‌١‌ ‌

إلى‌ ‌دواعش‌ ‌الشيعة‌ ‌..‌ ‌عقيدتكم‌ ‌فوق‌ ‌رمال‌ ‌متحركة‌ ‌-‌١‌ ‌

ذكرتُ‌ ‌في‌ ‌مقالات‌ ‌سابقة‌ ‌(أ)‌ ‌ان‌ ‌التسنن‌ ‌والتشيع‌ ‌هما‌ ‌سرطان‌ ‌الأمة‌ ‌الذي‌ ‌يفتك‌ ‌بها;‌ ‌و‌ ‌(ب)‌ ‌ان‌ ‌
التسنن‌ ‌هو‌ ‌ردة‌ ‌فعل‌ ‌خاطئة‌ ‌لظهور‌ ‌أول‌ ‌حركة‌ ‌هدامة‌ ‌في‌ ‌الاسلام‌ ‌وهي‌ ‌التشيع‌ ‌الى‌ ‌أول‌ ‌من‌ ‌
أسلم‌ ‌من‌ ‌الأطفال‌ ‌علي‌ ‌بن‌ ‌أبي‌ ‌طالب‌ ‌بعد‌ ‌أكثر‌ ‌من‌ ‌٢٠٠‌ ‌سنة‌ ‌من‌ ‌وفاة‌ ‌علي‌ ‌..‌ ‌حيث‌ ‌اختفى‌ ‌
الاسم‌ ‌(الاسلام)‌ ‌وحلت‌ ‌مكانه‌ ‌الصفات‌ ‌،‌ ‌سني‌ ‌وشيعي‌ ‌;‌ ‌أي‌ ‌الغبي‌ ‌والأغبى‌ ‌منه‌ ‌!!!‌ ‌
١‌.‌ ‌التشيع‌ ‌الى‌ ‌أول‌ ‌من‌ ‌أسلم‌ ‌من‌ ‌الأطفال‌ ‌علي‌ ‌بن‌ ‌أبي‌ ‌طالب‌ ‌هو‌ ‌اعلان‌ ‌صريح‌ ‌ان‌ ‌الله‌ ‌مخطط‌ ‌
فاشل‌ ‌(حاشا‌ ‌لله)‌ ‌!!‌ ‌أن‌ ‌يقرر‌ ‌الله‌ ‌مسبقاً‌ ‌ان‌ ‌علي‌ ‌بن‌ ‌أبي‌ ‌طالب‌ ‌هو‌ ‌الذي‌ ‌يجب‌ ‌أن‌ ‌يخلف‌ ‌النبي‌ ‌
محمد‌ ‌(ص)‌ ‌ويخلق‌ ‌علي‌ ‌طفلاً‌ ‌ابن‌ ‌٨‌ ‌أعوام‌ ‌عند‌ ‌بعثة‌ ‌محمد‌ ‌فهو‌ ‌قطعاً‌ ‌ليس‌ ‌ربي‌ ‌لأن‌ ‌ربي‌ ‌هو‌ ‌
الحكيم‌ ‌..‌ ‌والمدبر‌ ‌!!‌ ‌…‌ ‌دعونا‌ ‌نرافق‌ ‌أبي‌ ‌بكر‌ ‌الصديق‌ ‌(عمره‌ ‌:‌ ‌٣٨‌ ‌سنة)‌ ‌وهو‌ ‌يذهب‌ ‌
مسرعاً‌ ‌وبدون‌ ‌موعد‌ ‌مسبق‌ ‌الى‌ ‌بيت‌ ‌الرسول‌ ‌محمد‌ ‌بعد‌ ‌أقل‌ ‌من‌ ‌شهر‌ ‌من‌ ‌ولادة‌ ‌الاسلام‌ ‌
حاملاً‌ ‌بيده‌ ‌أسماء‌ ‌الأشخاص‌ ‌”الرفاق”‌ ‌من‌ ‌الرعيل‌ ‌الأول‌ ‌(أبو‌ ‌عبيدة‌ ‌عامر‌ ‌بن‌ ‌الجراح‌ ‌-‌ ‌
عثمان‌ ‌بن‌ ‌عفان‌ ‌-‌ ‌سعد‌ ‌بن‌ ‌أبي‌ ‌وقاص‌ ‌-‌ ‌الزبير‌ ‌بن‌ ‌العوام‌ ‌-‌ ‌طلحة‌ ‌بن‌ ‌عبيدالله‌ ‌-‌ ‌عبدالرحمن‌ ‌
بن‌ ‌عوف)‌ ‌الذين‌ ‌كسبهم‌ ‌للتو‌ ‌”للحزب”‌ ‌…‌ ‌طرق‌ ‌أبو‌ ‌بكر‌ ‌الباب‌ ‌ولنفرض‌ ‌ان‌ ‌الطفل‌ ‌علي‌ ‌هو‌ ‌
من‌ ‌فتح‌ ‌الباب‌ ‌..‌ ‌لك‌ ‌الحق‌ ‌عزيزي‌ ‌القارئ‌ ‌أن‌ ‌تتخيل‌ ‌أي‌ ‌سيناريو‌ ‌هو‌ ‌ممكن‌ ‌..‌ ‌أن‌ ‌يفتح‌ ‌الطفل‌ ‌
علي‌ ‌الباب‌ ‌وبيده‌ ‌لعبة‌ ‌أطفال‌ ‌،‌ ‌جائز‌ ‌وممكن‌ ‌وليس‌ ‌فيها‌ ‌ما‌ ‌ينقص‌ ‌من‌ ‌قدر‌ ‌هذا‌ ‌الطفل‌ ‌فقد‌ ‌رفع‌ ‌
القلم‌ ‌عنه‌ ‌حتى‌ ‌يبلغ‌ ‌الحلم‌ ‌بعد‌ ‌حوالي‌ ‌٦‌ ‌سنوات‌ ‌..‌ ‌أن‌ ‌ينادي‌ ‌الطفل‌ ‌علي‌ ‌على‌ ‌أبي‌ ‌بكر‌ ‌ب‌ ‌
(عمو)‌ ‌ويخاطبه‌ ‌أبو‌ ‌بكر‌ ‌بالسؤال‌ ‌”‌ ‌عمو‌ ‌أين‌ ‌محمد”؟‌ ‌جائز‌ ‌جداً‌ ‌;‌ ‌هذا‌ ‌اذا‌ ‌كان‌ ‌الرجل‌ ‌أبو‌ ‌
بكر‌ ‌يعرف‌ ‌الطفل‌ ‌الذي‌ ‌فتح‌ ‌له‌ ‌الباب‌ ‌!!‌ ‌…‌ ‌حتى‌ ‌لو‌ ‌كرر‌ ‌أبو‌ ‌بكر‌ ‌الصديق‌ ‌تلك‌ ‌الزيارة‌ ‌
المفاجئة‌ ‌بعد‌ ‌خمس‌ ‌سنوات‌ ‌(أكرر:‌ ‌بعد‌ ‌خمس‌ ‌سنوات‌ ‌من‌ ‌بعثة‌ ‌محمد‌ ‌..‌ ‌ولنفرض‌ ‌انه‌ ‌ذهب‌ ‌